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सम्मान

एक पुजारीजी का बड़ा सम्मान था. लोगों का मानना था कि उनपर ईश्वर की विशेष कृपा है. यदि अपनी समस्या उन्हें बता दें तो वह बिहारीजी तक पहुंचा देते हैं. एक तांगेवाले ने भी उनके बारे में सुन रखा था. उसकी इच्छा होती कि मंदिर जाए पर जा नहीं पाता. उसे दुख भी होता कि पेट पालने के चक्कर में ईश्वर से दूर हो रहा है.

तांगेवाले के मन का बोझ ज्यादा बढ़ गया, तो वह एक दिन मंदिर पहुंचा और पुजारी से कहा-मैं सुबह से शाम तक तांगा चलाकर परिवार पालने में फंसा रहता हूं. मंदिर आने का समय नहीं मिलता. डर है नाराज होकर भगवान मुझे नरक की यातना सहने न भेज दें. मैं तांगा चलाना छोड़ रोज मंदिर में पूजा शुरू कर दूं?

पुजारी ने पूछा-क्या कभी तुमने किसी बूढ़े, अपाहिज, बच्चे या मजबूर को बिना पैसे लिए तांगे में बिठाया हो? तांगेवाला बोला- अक्सर! कोई पैदल चलने में असमर्थ हो तो उसे गाड़ी में बिठा लेता हूं. पैसे भी नहीं मांगता. पुजारी यह सुनकर खुश हुए. वह बोले- तुम्हें अपना काम छोड़ने की जरूरत नहीं. बूढ़े,अपाहिज,रोगी, बच्चों और दुखियों की सेवा ही सच्ची भक्ति है. जिसके मन में करुणा व सेवाभाव हो, उसके लिए पूरा संसार मंदिर जैसा है.

मंदिर तो उन्हें आना पड़ता है जो अपने कर्मों से ईश्वर की प्रार्थना नहीं कर पाते. लोगों की सेवा करके मुझसे ज्यादा सच्ची भक्ति तुम कर रहे हो. ईमानदारी से भरण-पोषण करते दूसरों के प्रति दया रखने वाला प्रभु को सबसे प्रिय है. संसार के जीव ईश्वर की संतान हैं. माता-पिता ज्यादा प्रसन्न होते हैं जब कोई उसकी संतान से प्रेम दर्शाए.

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