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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद हेमूं कालाणी

सिन्ध के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद हेमूं कालाणी

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सैकड़ों शहीदों ने बलिदान दिया है। इस संदर्भ में जब सिंधी समुदाय का जि़क्र आता है तो स्वतंत्रता संग्राम में सिंध प्रदेश से योगदान के रूप में सबसे कम आयु के स्वतंत्र्ाता संग्राम सेनानी शहीद हेमू कालाणी का नाम सर्वोपरि आता है।

मुम्बई में चेम्बूर के यूनियन पार्क निवासी कमला और टेकचंद पेसूमल कालाणी हेमू कालाणी के परिवार से हैं। 70 वर्षीय टेकचंद हेमूं कालाणीअ के लघु भ्राता हैं।

भारत के संसद भवन में 21 अगस्त 2003 को शहीद हेमू कालाणी की मूर्ती का लाकार्पण तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने किया था।

इसके पूर्व भारत सरकार द्वारा इस शहीद पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया था जिसका लोकार्पण 18 अक्टूबर 1983 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा एक समारोह में शहीद हेमूं कालाणी की माता श्रीमती जेठी बाई की उपस्थिति में किया था।

इस क्रांतिकारी शहीद के सम्बंध में उनके भाई टेकचंद बताते हैं, ‘‘मेरे बड़े भाई हेमूं ने 19 वर्ष की आयु में अपनी मातृभूमि के लिये बलिदान दिया। उनका जन्म 23 मार्च 1923 को सिंध प्रदेश के सक्खर शहर में हुआ था। सिंध में मेरे माता-पिता श्रीमती जेठीबाई एवं पेसूमल एक मध्यमवर्गीय परिवार से थे।’’ उनके अनुसार हेमू कालाणी पर उनके चाचा डॉ. मंघाराम कालाणी जो एक बुज़ुर्ग स्वतंत्रता संगाम सेनानी थे, का प्रभाव था। टेकचंद बताते हैं- ‘‘हेमूं प्रायः हाथ में तिरंगा झंडा लिये अपने मोहल्ले के युवको के समूह नेतृत्व करते थे।

सन् 1942 में महात्मा गांधी जी द्वारा अंग्रेज़ों के विरुद्ध दिये गये ‘‘भारत छोड़ो’’ आव्हान से हेमूं काफी प्रभावित हुए थे। हेमूं को पता चला कि ब्रिटिश सेना और हथियार लेकर एक विशेष रेलगाड़ी रोहड़ी से से क्वेटा की तरफ जा रही है और वह सक्खर शहर से गुज़रने वाली है तो उसने पटरियों की फिश प्लेट्स उखाड़कर रेलगाड़ी को पटरियों से गिराने का निश्चय किया, इस कार्य में उसके दो और साथी भी थे। वे लोग पूरी तरह से फिशप्लेट्स के नट खोल पाते इसके पहले ही पुलिस ने उन्हें देख लिया और उन्हे पकड़ने के लिए आई। हेमूं के दो साथी भागने में कामयाब हो गए, परन्तु हेमूं वहीं ही बैठा अपना काम करता रहा और पकड़ा गया। उसको जेल में बंद करके पुलिस ने उस पर बर्बर अत्याचार किये कि वह अपने बाक़ी दो साथियों के नाम बता दे। परन्तु हेमूं टस से मस नहीं हुआ उसन अपने साथियों के नाम बताने से इंकार कर दिया।
सक्खर जि़ले की मार्शल लॉ कोर्ट ने हेमूं को आजीवन कारावास की सज़ा देने का आदेश दिया और पुष्टि के लिये कर्नल रिचर्डसन को भेजा जिसने आजीवन कारावास की सज़ा को मृत्यु-दण्ड में बदल दिया। यह निर्णय सुन समूरा देश अवाक् रह गया।’’

श्री टेकचंद का कहना है उन दिनों की याद करके उनका गला भर आता है और रुंघे हुए गले से कहते हैं-‘‘उन दिनों मैं घर का बना भोजन लेकर भाई को पहुंचाने जेल जाता था।
उनने अपनी मैट्रिक की परीक्षा 1942 में उत्तीर्ण की थी और 21 जनवरी 1943 को उन्हें फांसी दी गई।

उनकी फांसी से आधा घण्टा पूर्व परिवार के सभी सदस्य उनसे मिलने गये थे। वे अंतिम क्षण मेरी आंखों में आज भी उज्जवल हैं। मेरे माता-पिता और बहन रो रहे थे परन्तु हेमूं शांत और प्रकृतिस्थ थे। उन्होंने मुझे गले लगाया और कहा कि मैं देश की स्वतंत्र्ाता की लड़ाई में भाग लेकर उनका सपना पूरा करूं।
श्री टेकचंद बताते हैं कि कारावास की अवधि में हेमूं ने काफी अध्ययन किया और खूब व्यायाम करते थे। वे क्रिकेट, तैराकी और सइकलिंग के शौक़ीन थे। यह हक़ीक़त है कि कारावास की अवधि में उनका वज़न 8 किलो बढ़ गया था, मृत्यु दण्ड पा चुके व्यक्ति के मामले में यह चीज़ बहुत ही अजीब लगती है।
उसने कोर्ट से कहा कि स्वतंत्रा संग्राम को कुचलने के लिये ब्रिटिश सरकार द्वारा भेजी जा रही सेना और हथियार ले जा रही रेल को गिराने का उनका प्रयत्न बिलकुल न्यायपूर्ण था।

सिंध प्रदेश के कई प्रभावशाली व्यक्तियों ने हेमूं से सम्पर्क कर कहा कि यदि वह अपने दो साथियों के नाम बता दें तो ब्रिटिश सरकार से याचिका कर उनकी फांसी की सज़ा को आजीवन कारावास में बदलवाया जा सकता है। परन्तु मेरे भाई द्वारा इस प्रस्ताव की शर्तों को स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उसने सामने खड़ी मौत को हंसते हुए स्वीकार किया’’।
कमला कालाणी परिवार में प्रवेश सन् 1959 में टेकचंद से विवाह करने के पश्चात हुआ। वे कहती हैं- ‘‘मैंने हमूं कालाणी की शहीदी के सम्बध में किताबों में पढ़ा था परन्तु मैंने कल्पना नहीं की थी कि मैं एक दिन ऐसे महान परिवार का हिस्सा बन जाऊंगी।
विभाजन के बाद मेरे ससुराल वाले निर्वासित होकर यहां चेम्बूर में आकर एक सामान्य परिवार के रूप में बसे। मेरी सासु मां के गले में ख़राबी आने के कारण बोलने की शक्ति ख़त्म हो गई थी जिसके कारण वह अपने विचार व्यक्त नहीं कर सकती थी। मैं पहली बार उनको किसी सार्वजनिक समारोह में सूरत लेकर गई थी क्यों कि मैं चाहती थी कि इस महान माता, जिसने अपने बेटे का बलिदान देश की आज़ादी के संघर्ष में दिया था उसके सम्बन्ध में सभी को पता होना चाहिए। धीरे धीरे लोगों को उनके सम्बंध जानकारी प्राप्त होती गई और उनको उचित सम्मान प्राप्त हुआ।
1983 से उनको स्वतंत्र्ांता संग्राम सेनानियों के लिए निर्धारित पेंशन मिलना प्रारम्भ हुई। वे क्षण हमारे परिवार के लिये अविस्मरणीय हैं जब हेमूं के संबंध में जानकारी होने पर शहीद भगत सिंह की माता हमारे चेम्बूर कालोनी स्थिन निवास में आई।
मेरे पोते परपोते अपने वंश पर गर्व महसूस करते है।’’ उन्होने गर्व से कहा।

पण्डित नेहरू द्वारा श्रद्धांजलि:
26 जनवरी 1943 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हेमूं कालाणी को निम्नलिखित शब्दों में भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित कीः ‘‘मेरा मस्तिषक सिंध में घूम रहा है जहां पर कुछ दिन पूर्व एक 20 वर्षीय हेमूं नामक युवक को मार्शल कोर्ट ने रेल पटरियों को उखाड़ने या उखाड़ने की कोशिश करने के जुर्म में फांसी की सज़ा दे दी थी। मुझे ऐसा लग रहा है कि उनके इस कृत्य से भविष्य में सम्पर्ण भारत में, विशेषकर युवाओं में, प्रभाव पड़ेगा। हेमूं और दूसरे शहीदों का ख़ून सदैव इसका गवाह होगा।’’
1945 में अपनी सिंध यात्रा के दौरान नेहरूजी ने इस शहीद के घर जाकर उसकी मां से मिलकर श्रद्धांजलि अर्पित की थी।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आज़ाद हिंद फौज के वरिष्ठ अधिकारियों ने भी हेमूं कालाणी के परिवार को स्वर्ण पदक प्रदान कर इस शहीद को श्रद्धांजलि अर्पित की थी।

आज जोधपुर में जागृति रैली एवं श्रद्धांजलि कार्यक्रम में अवश्य पधारे...

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